Commentary by Gulzar...
कबीर को पढते जाओ, परत खुलती जाती है,
आबिदा को सुनते रहो सुरत खुलती रहती है,
ध्यान लग जाता है, इबादत शुरू हो जाती है,
अपने आप आंखें बन्द हो जाती हैं,
कोइ उन्हें सामने बैठ के सुने,
आंखें खोलो तो बाहर नज़र आती हैं,
आंखें मूंदो तो अन्दर,
पीतम को पतियां लिखूं, जो कहूं होये बिदेस ।
तन में मन में नैन में, ताको कहा सन्देस ॥
Abida starts singing...
सोऊं तो सपने मिलूं, जागूं तो मन मांहि ।
लोचन रातें सब घडी, बिसरत कबहू न मांहि ॥
कबीरा सीप समुंद्र की, रते प्यास पियास ।
और बूंद को ना गिहे, स्वाति बूंद की आस ॥
नैनन अन्तर आओ तो, नैन झांक तोहे ल्यूं ।
ना मैं देखूं और को, ना तोहे देखन द्यूं ॥
जात न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ग्यान ।
मोल करो तलवार का, पडी रहन दो म्यान ॥
हम तुमहरो सुमिरन करो, तुम मोहे चेतो नांहि ।
सुमिरन मन की प्रीत है, सो मन तुमही मांहि ॥
ज्यूं नैनन में पोतली, यूं मालिक़ घट मांहि ।
मूरख लोग न जाने, बाहर ढूढत जांहि ॥१९२॥
चलती चक्खी देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पट भीतर आईके, साबित गया न कोये ॥
क्या मुखहे बिनती करूं, लाज आवत है मोहे ।
तुम देखत औ-गुन करूं, कैसे भाऊं तोहे ॥
मरिये तो मर जाइये, छूट पड़े जग जार ।
ऐसे मरना तो मरे, दिन में सौ सौ बार ॥
सबद सबद सब कोइ कहे, सबद के हाथ न पांव ।
एक सबद औशुध करे, एक सबद किर घाव ॥
माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख मांहि ।
मनवा तो चहूं दिस फिरे, ये तो सुमिरन नांहि ॥
उठा बगोला प्रेम का, तिनका उड़ा आकास ।
तिनका तिनका से मिला, तिनका तिनके पास ॥
नैनन की कर कोठड़ी, पुतरी पलंग बिछाय ।
पलकों की चित डाल के, पी को लिया रिझाय ॥
हरि से तो जन हेत कर, कर हरि-जन से हेत ।
माल मिलत हरि देत है, हरि-जन हरि ही देत ॥
कबीरा संगत साधु की, जौं की भूसी खाय ।
खीर खांड भोजन मिले, साकत संग न जाये ॥
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